Saturday, February 11, 2012

उस मुलाकात का असर अब भी है

उस मुलाकात का असर अब भी है
मेरे हिस्से में सहर अब भी है

पेशानी की लकीरों में कुछ तो बात होगी
के हम पर ज़िन्दगी की नज़र अब भी है

पेचीदगियों में उलझने का गिला नहीं मुझे
मेरे घर में सुकून का बसर अब भी है

मंजिल मिल ही गई तो फिर रुकना होगा
शुक्र है मेरे हिस्से में सफ़र अब भी है...

खुदा हो जाऊं अगर हर डर पे फतह हासिल कर लूं
मैं इंसा हूँ, मुझमे बाकी कुछ डर अब भी है...

3 comments:

  1. शरबानी जी। आपकी मानीख़ेज़ ग़ज़ल पढ़कर यक-ब-यक दो मिसरे बन पड़े, लीजिए-

    सियासत के तहत वो नज़दीक तो आ गए,
    उनकी क़ुर्बत में हालांकि ज़हर अब भी है.

    दिनेश 'दर्द'

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