उस मुलाकात का असर अब भी है
मेरे हिस्से में सहर अब भी है
पेशानी की लकीरों में कुछ तो बात होगी
के हम पर ज़िन्दगी की नज़र अब भी है
पेचीदगियों में उलझने का गिला नहीं मुझे
मेरे घर में सुकून का बसर अब भी है
मंजिल मिल ही गई तो फिर रुकना होगा
शुक्र है मेरे हिस्से में सफ़र अब भी है...
खुदा हो जाऊं अगर हर डर पे फतह हासिल कर लूं
मैं इंसा हूँ, मुझमे बाकी कुछ डर अब भी है...
Good...keep it up
ReplyDeleteso gud....
ReplyDeleteशरबानी जी। आपकी मानीख़ेज़ ग़ज़ल पढ़कर यक-ब-यक दो मिसरे बन पड़े, लीजिए-
ReplyDeleteसियासत के तहत वो नज़दीक तो आ गए,
उनकी क़ुर्बत में हालांकि ज़हर अब भी है.
दिनेश 'दर्द'