Thursday, July 28, 2011

कभी-कभी...

कभी-कभी खलती है मुझे

एक कांधे की कमी
जिसपर सिर रखकर रो सकूं...

एक जोड़ी पनीली आंखों की गहराई
जिनमें खुद को डुबो सकूं...

सदियों से नहीं मिला मुझे

एक सीने का सहारा
जहां सुकून से दो पल सो सकूं...

एक बाहों का घेरा जहां
खुद को सुरक्षित कर निश्चिंत हो सकूं...

वो हाथ जिसे थामकर
आने वाली ज़िन्दगी के सपने संजो सकूँ... 


कोई ऐसा दिखाई नहीं देता

जिसको पाने की चाहत में
मैं खुद को खो सकूं...

न जाने कहां चली गई वो मुस्कान
जिसे देखकर मैं तरोताजा हो सकूं....

तन्हाई मेरे साथ हुई...

कुछ उदासी के बादल छंटे
जब आंखों से बरसात हुई

मन जाने क्यों डर सा गया
और घनी जब रात हुई

एक उमर गुजर सी गई
जब आखिरी बार उनसे बात हुई

उम्मीदों का दामन पकड़े हुए हैं
फिर भी लगता है जैसे हमारी मात हुई

मेरे अपने चल दिए
अपने अपने हमसफर के साथ

मेरा दिल अकेला चल दिया
और तन्हाई मेरे साथ हुई...

Wednesday, July 27, 2011

नैनों की गागर

नैनों की गागर जब भर जाए
अंसुअन के मोती छलक जाएं

इनके संग बहे दर्द जिया का
संदेसा नहीं आवत पिया का

अब कौन कांधे संग बांटू मैं पीर
मोरा कान्हा छोड़ गया मोहे नदिया के तीर

वहीं बाट जोहूं और अंसुअन मैं बहाऊं
पर कान्हा के बिना अब घर न जाऊं...

Monday, July 25, 2011

कुछ तो है जो खो गया है...



यूँ तो सभी कुछ मेरे पास है लेकिन 
कुछ तो है जो खो सा गया है...

इस बात का जवाब तो मेरे पास भी नहीं
की क्या है वो जो मेरे साथ नहीं...
किसी के साथ की कमी है ये या फिर
मेरा वक़्त कुछ सो सा गया है....
लोगो से घिरे रहते हैं हम यूँ तो
पर अपना साया ही ग़ुम हो सा गया है...

वहां तक तो किसी की नज़र भी नहीं जाती
जहाँ वो शख्स अभी रोकर गया है...
मैंने कभी किसी को बद्दुआ तो नहीं दी
फिर क्यों कोई बिछड़ा हुआ परेशां सा हो गया है 

शायद उसकी हंसी ही है जो गायब है
कहीं वो मुझसे जुदा होकर खामोश से हो गया है....

तुम्हारी याद...


सावन की रिमझिम फुहार सी है तुम्हारी याद
जो कुछ ऐसे बरसती है मेरे प्यासे मन पर
कि बाहर कुछ बहता नहीं है और
अंदर सब जज्ब होता चला जाता है...

तुम्हारी याद कभी तेज़ बारिश भी बन जाती है
जब मन की नदी भर जाती है तुम्हारी याद से
तो सारे बांध तोड़ते हुए यह याद
आंखों से बरसने लगती है बेतहाशा...

और कभी यही याद इतनी मूसलाधार हो जाती है
के मुझे अपने साथ अतीत के भंवर में बहा ले जाती है
जहां मैं डूबती-उतरती रहती हूं, तब तक
जब इन यादों के काले बादलों को चीरकर उम्मीदों का नया सूर्य नहीं चमकता....

Tuesday, July 19, 2011

ज़िन्दगी की बदली राहें

कहाँ से गुज़रते हुए ये
कहाँ आ गई ज़िन्दगी
आवारा सी बेपरवाह होकर
अनजान राहों पर भटकते हुए..

जहाँ कभी सरपट से
आगे बढ़ जाते थे हर मक़ाम से
वहीँ अब गुज़रना पड़ता है
रुक कर, अटकते हुए..

हम बड़े हो गए लेकिन
दिल तो नादाँ ही रहा
इसकी आदत ना गई
दिल्लगी करने की बहकते हुए...

झरनों सी आदत है
गिरकर बिखर जाने की
हम ना बन पायेंगे दरिया से
जो चलता है खामोश सरकते हुए..

वो शख्स

कुछ लटें ढुलक आती हैं चेहरे पे उसकी
जब हया से उसका सिर झुक जाता है...
उस पल को धडकनें तेज़ हो जाती हैं और
कभी ना थमने वाला वक़्त भी रुक जाता है...

ऐसा नहीं के वो बेपनाह हुस्न का मालिक है
बस खुद पे सादगी को ओढ़े रहता है...
लब खामोश रहते हैं अक्सर उसके
निगाहों से वो औरों को खुद से जोड़े रहता है...

हर तरफ उसके
एक सुकून सा बिछा रहता है
एक अलग कशिश सी है उसमे
जो हर शख्स उसकी ओर खिचा सा रहता है...

उसके होने से गोशे गोशे में
रौनक सी हो जाती है
मेरी परेशानियाँ भी उन पलों में
ना जाने कहाँ गुम सी हो जाती हैं...

Wednesday, July 6, 2011

मेरी तकलीफ सुनो यारों...

मुज़तरिब हूं, ऐसे ना परेशां करो यारों
मेरे दर्द को समझो, थोड़े तो मेहरबां बनो यारों...

मेरी आशिकी ने जख्म बड़े दिए मुझको
उन जख्मों को तुम अब ना कुरेदो यारों...

इज़तेराब ये है के उसे ख्याल नहीं मेरे जज्बातों का
मेरी इस तकलीफ की कुछ तो दवा करो यारों ...

तल्खी है उसके लफ्ज़ों में, नज़रों में हिकारत है
मेरे पाक इरादों को उससे बयां करो यारों...

उन्हें लगता है कि हम दिल्लगी सी करते हैं
अपनी संजीदगी का अहसास कैसे उसे दिलाऊं यारों...

लगता है के मेरी मौत ही से यकीं आएगा उनको
मेरे जनाज़े को उनके झरोखे के नीचे से ले जाना यारों...

हर बार क्यों खफा होती है जिंदगी?

कभी ऐसे तो कभी वैसे
मैं उसे बहुत मनाती हूं..
लेकिन फिर भी न जाने क्यों
हर बार जिंदगी मुझसे खफा हो जाती है...

कभी प्यार का खिलौना मांगती है वो
तो कभी पैसे की खुमारी चढ़ती है
मगर हर बार उसका दिल टूटने पर
मैं उसे रोने के लिए कंधा देती हूं

लाख जतन करती हूं कि वो
खुश रहे सदा मुझसे
लेकिन ज्यादा खुशी के लालच में वो
हर बार मुझे दगा दे जाती है...

हर बार घर लाती हूं उसे मैं
मगर उसे बागी होना पसंद है
उसकी बे सिर-पैर की चाहतें ना पूरी हों
तो वो मुझसे खफा हो जाती है...

वो अजनबी...

वो अजनबी जाने क्यों बहुत
जाना-पहचाना सा मालूम होता है...

जो भीड़ में चलते वक्त
मेरी बगल से टकराता हुआ सा निकला था...

यूं तो मैंने उसे ·भी देखा नहीं था मगर
उसकी खुशबू भी कुछ पहचानी सी लगी मुझे

आज भी जब आंखें बंद करती हूं अपनी
तो न जाने क्यों एक चेहरा उभर आता है

लगता है जैसे वो ऐसा ही तो दिखता था...

वो अजनबी कहीं और कभी दिखा नहीं मुझको
और ना ही कभी वैसा कोई और चेहरा नजर आया

मगर सांस लेने पर वही खुशबू मुझे
आज भी ताजा कर जाती है

ऐसा लगता है जैसे जन्मों से इसी खुशबू से
वर्चस्व मेरा महकता था...