कहाँ से गुज़रते हुए ये
कहाँ आ गई ज़िन्दगी
आवारा सी बेपरवाह होकर
अनजान राहों पर भटकते हुए..
जहाँ कभी सरपट से
आगे बढ़ जाते थे हर मक़ाम से
वहीँ अब गुज़रना पड़ता है
रुक कर, अटकते हुए..
हम बड़े हो गए लेकिन
दिल तो नादाँ ही रहा
इसकी आदत ना गई
दिल्लगी करने की बहकते हुए...
झरनों सी आदत है
गिरकर बिखर जाने की
हम ना बन पायेंगे दरिया से
जो चलता है खामोश सरकते हुए..
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