Thursday, July 28, 2011

कभी-कभी...

कभी-कभी खलती है मुझे

एक कांधे की कमी
जिसपर सिर रखकर रो सकूं...

एक जोड़ी पनीली आंखों की गहराई
जिनमें खुद को डुबो सकूं...

सदियों से नहीं मिला मुझे

एक सीने का सहारा
जहां सुकून से दो पल सो सकूं...

एक बाहों का घेरा जहां
खुद को सुरक्षित कर निश्चिंत हो सकूं...

वो हाथ जिसे थामकर
आने वाली ज़िन्दगी के सपने संजो सकूँ... 


कोई ऐसा दिखाई नहीं देता

जिसको पाने की चाहत में
मैं खुद को खो सकूं...

न जाने कहां चली गई वो मुस्कान
जिसे देखकर मैं तरोताजा हो सकूं....

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