रात के आगोश में, अधमुंदी आँखों से मैंने
देखे कुछ सपने हसीं
भोर की पहली किरण के साथ ही मगर
उन हसीं सपनो के ऊपर
धुंध सी क्यों छा गई...
स्वप्न मंडित उस जहाँ में
दूर तक फैली हुई थी
रौशनी की ढेर किरणें..
सुख भरे कई नए वर्ष, बीते थे कुछ ही क्षणों में..
धुंध ऐसी छा गई है ..
इन अधूरी ख्वाहिशों पर
लग रहा एक युग है बीता धुंध छटने की बाट जोहकर...
धुंध की ये घनी चादर
सब समेटे जा रही है....
नज़रों से सब हुआ ओझल, सांस थमती जा रही है....
दिल जो बैठा जा रहा है
बस दुआ यही मांग रहा है...
सूर्य होकर प्रबल फिर से, काट देगा धुंध की चादर...
फिर दिखेंगे स्वप्न सारे..
फिर सजेगा वही मंज़र...
Friday, December 31, 2010
Tuesday, December 28, 2010
रिश्तों की उलझन...
अनजाने लोगों ने बांधा है मुझको
बेनाम रिश्तों की डोरी में ऐसे
फूलों की खुशबु में चुपके से बंध जाए
आकर कहीं से कोई भंवरा जैसे
छूटने की कोशिश करूँ तो डोर कसती चली जाए
मेरी जान उस रिश्ते में बसती चली जाए
बहुत नाज़ुक है ये डोर
संभालू मैं कैसे???
कोई तो कहीं हो जो ये बता दे
इस उलझन से निकलूं मैं कैसे
बेनाम रिश्तों की डोरी में ऐसे
फूलों की खुशबु में चुपके से बंध जाए
आकर कहीं से कोई भंवरा जैसे
छूटने की कोशिश करूँ तो डोर कसती चली जाए
मेरी जान उस रिश्ते में बसती चली जाए
बहुत नाज़ुक है ये डोर
संभालू मैं कैसे???
कोई तो कहीं हो जो ये बता दे
इस उलझन से निकलूं मैं कैसे
नयी सुबह
सूरज ने ढलते हुए कहा था मुझसे ....
एक सुबह फिर तेरी ज़िन्दगी में आएगी ....
रात के अंधेरों में ही तो राह ढूंढनी है
तभी उजालों में पहचान बन पायेगी.....
एक सुबह फिर तेरी ज़िन्दगी में आएगी ....
रात के अंधेरों में ही तो राह ढूंढनी है
तभी उजालों में पहचान बन पायेगी.....
वो बीते दिन...
प्यार, दोस्ती, घूमना-फिरना
कॉलेज के campus में बेपरवाह ठहाकों का झरना
कभी लंच पे जाना, तो कभी साथ डिनर करना...
कभी लगता है ये सब कल की बात है
कभी लगता है सदियाँ बीत गयी हैं
शहर वही है, लोग वही हैं
बस दोस्त अब कोई नहीं है...
कहने को ज़िन्दगी आज भी चल रही है
रोज़ सूरज उग रहा है और शाम ढल रही है...
पर जिंदा होने का एहसास कुछ ख़त्म सा होता जा रहा है...
यूँ लगता है की बस मशीन बन गए हैं हम
वक़्त की फैक्ट्री में हर पुर्जा बस घिसता जा रहा है ....
कॉलेज के campus में बेपरवाह ठहाकों का झरना
कभी लंच पे जाना, तो कभी साथ डिनर करना...
कभी लगता है ये सब कल की बात है
कभी लगता है सदियाँ बीत गयी हैं
शहर वही है, लोग वही हैं
बस दोस्त अब कोई नहीं है...
कहने को ज़िन्दगी आज भी चल रही है
रोज़ सूरज उग रहा है और शाम ढल रही है...
पर जिंदा होने का एहसास कुछ ख़त्म सा होता जा रहा है...
यूँ लगता है की बस मशीन बन गए हैं हम
वक़्त की फैक्ट्री में हर पुर्जा बस घिसता जा रहा है ....
फलसफे ज़िन्दगी के
फलसफे ज़िन्दगी के कभी यूँ ही बदल जाते हैं
जो कभी दोस्त थे आज अनजान बनकर निकल जाते हैं...
जिनकी हंसी से कभी रोशन थी ज़िन्दगी,
जिनका साथ देता था हर ख़ुशी...
आज वही लोग हैं जो बात तो अब भी करते हैं लेकिन
हमें मझधार में छोड़ खुद किनारा कर जाते हैं....
जो कभी दोस्त थे आज अनजान बनकर निकल जाते हैं...
जिनकी हंसी से कभी रोशन थी ज़िन्दगी,
जिनका साथ देता था हर ख़ुशी...
आज वही लोग हैं जो बात तो अब भी करते हैं लेकिन
हमें मझधार में छोड़ खुद किनारा कर जाते हैं....
फिर से जीने का मन करता है ...
सब कहते हैं आगे बढ़...
तेज़ चल और हासिल कर फतह..
पर दिल कहता है, वापस चल
उन यादों के गलियारों की और..
जहाँ छिपी है बचपन की मस्ती
लड़कपन के हुल्लड़ और पहले प्यार की खुशबू
उन पलों को फिर से जीने का मन करता है ...
तेज़ चल और हासिल कर फतह..
पर दिल कहता है, वापस चल
उन यादों के गलियारों की और..
जहाँ छिपी है बचपन की मस्ती
लड़कपन के हुल्लड़ और पहले प्यार की खुशबू
उन पलों को फिर से जीने का मन करता है ...
मोहे याद सतावे...
हेमंत की बयार ठिठुरन से भरी
कुदरत की अजब है कारीगरी
सर्द हवा सिहरन दे जावे
पी की मोहे याद सतावे...
आसमान में छाए बदरा
अंसुअन से भीगे है कजरा
कासे कहूँ सखी पीर जिया की
नज़र बदल गई मोरे पिया की...
कुदरत की अजब है कारीगरी
सर्द हवा सिहरन दे जावे
पी की मोहे याद सतावे...
आसमान में छाए बदरा
अंसुअन से भीगे है कजरा
कासे कहूँ सखी पीर जिया की
नज़र बदल गई मोरे पिया की...
बचते ही रहे
ज़िन्दगी भर हम
किसी ना किसी से बचते ही रहे
छोटे थे तो होमवर्क करने से बचते थे
थोड़े बड़े हुए तो पापा को
रिपोर्ट कार्ड दिखने से बचने लगे
फिर गर्ल फ्रेंड के चक्कर में
दोस्तों से नज़र बचाने लगे
शादी हुई तो बीवी के साथ शुरू हुआ
लुका-छिपी का खेल
बच्चा पैदा होते ही
होने लगी रेलम पेल
बचते थे उससे की उसे पता ना चले
हमारा कोई ऐब
ज़िन्दगी के आखिरी पड़ाव पर पहुचकर लगा
यूँ ही भागते रहे ज़िन्दगी भर
बचने बचाने में
जीना बस भूल गए हम
यूँ दांव लगाने में...
किसी ना किसी से बचते ही रहे
छोटे थे तो होमवर्क करने से बचते थे
थोड़े बड़े हुए तो पापा को
रिपोर्ट कार्ड दिखने से बचने लगे
फिर गर्ल फ्रेंड के चक्कर में
दोस्तों से नज़र बचाने लगे
शादी हुई तो बीवी के साथ शुरू हुआ
लुका-छिपी का खेल
बच्चा पैदा होते ही
होने लगी रेलम पेल
बचते थे उससे की उसे पता ना चले
हमारा कोई ऐब
ज़िन्दगी के आखिरी पड़ाव पर पहुचकर लगा
यूँ ही भागते रहे ज़िन्दगी भर
बचने बचाने में
जीना बस भूल गए हम
यूँ दांव लगाने में...
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