Tuesday, December 28, 2010

वो बीते दिन...

प्यार, दोस्ती, घूमना-फिरना
कॉलेज के campus में बेपरवाह ठहाकों का झरना
कभी लंच पे जाना, तो कभी साथ डिनर करना...

कभी लगता है ये सब कल की बात है
कभी लगता है सदियाँ बीत गयी हैं
शहर वही है, लोग वही हैं
बस दोस्त अब कोई नहीं है...

कहने को ज़िन्दगी आज भी चल रही है
रोज़ सूरज उग रहा है और शाम ढल रही है...
पर जिंदा होने का एहसास कुछ ख़त्म सा होता जा रहा है...
यूँ लगता है की बस मशीन बन गए हैं हम
वक़्त की फैक्ट्री में हर पुर्जा बस घिसता जा रहा है ....

1 comment:

  1. Bilkul sahi kaha, aapki iss kavita ki kuchh panktiyan her ek ki zindagi ke ehsas ko bayan kar rahi hain

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