Friday, December 31, 2010

धुंध छा गई ...

रात के आगोश में, अधमुंदी आँखों से मैंने
देखे कुछ सपने हसीं
भोर की पहली किरण के साथ ही मगर
उन हसीं सपनो के ऊपर
धुंध सी क्यों छा गई...
स्वप्न मंडित उस जहाँ में
दूर तक फैली हुई थी
रौशनी की ढेर किरणें..
सुख भरे कई नए वर्ष, बीते थे कुछ ही क्षणों में..
धुंध ऐसी छा गई है ..
इन अधूरी ख्वाहिशों पर
लग रहा एक युग है बीता धुंध छटने की बाट जोहकर...
धुंध की ये घनी चादर
सब समेटे जा रही है....
नज़रों से सब हुआ ओझल, सांस थमती जा रही है....
दिल जो बैठा जा रहा है
बस दुआ यही मांग रहा है...
सूर्य होकर प्रबल फिर से, काट देगा धुंध की चादर...
फिर दिखेंगे स्वप्न सारे..
फिर सजेगा वही मंज़र...

2 comments:

  1. निराशा के भाव लेकिन भावानाओं की शानदार प्रस्तुति...



    "राम"

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  2. well done!! its gud to read it and its a better way to express yourself impressively. keep it up :)

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