Tuesday, December 28, 2010

रिश्तों की उलझन...

अनजाने लोगों ने बांधा है मुझको
बेनाम रिश्तों की डोरी में ऐसे
फूलों की खुशबु में चुपके से बंध जाए
आकर कहीं से कोई भंवरा जैसे
छूटने की कोशिश करूँ तो डोर कसती चली जाए
मेरी जान उस रिश्ते में बसती चली जाए
बहुत नाज़ुक है ये डोर
संभालू मैं कैसे???
कोई तो कहीं हो जो ये बता दे
इस उलझन से निकलूं मैं कैसे

3 comments:

  1. It is very difficult to explain your self in the boundary of the small words. Very well you did it.
    Congratulation by depth of heart.

    Keep writing

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  2. good yaar, bhaut achha likhati ho tum to...

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  3. Hausla afzaai ke liye shukriya..

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