Wednesday, September 14, 2011

उलझा हुआ सा कुछ

ना धूप का असर है, ना ठंड की लहर
रात कटती नहीं, जाने कब होगी सहर

सबकुछ धुंधला, धुआं धुआं
हर एक सपना अब तक अनछुआ

नम होते गिलाफ, वक्त अपने खिलाफ
कोई तो ओढ़ा दे गर्म जिस्म का लिहाफ

साज छेड़े है धुन, दर्द उनकी पुकार
याद आते हैं गुजरे हुए लम्हे बार-बार

दिल है थोड़ा निराश, प्यार उसकी तलाश
बुत को जिंदा करना चाहे संगतराश

कौन है वो दुश्मन जिसने छीना अमन-चैन
किसी तस्वीर की हकीकत ढूंढ़ते दो नैन...


कुछ है उलझा हुआ, किसी को सुलझने की आस
अतृप्त आत्माएं भटकती आसपास....

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