Tuesday, June 21, 2011

बेलगाम ख्वाहिशें...

उमड़ते बादलों को देखकर
मन में घुमड़ उठती हैं ख्वाहिशें भी
इस रुमानी मौसम में
कोई गले लगाता हमको भी

सुलग उठते हैं वो अरमां
जो ठंडे थे कई बरसों से
सालों के वो बंधन
खुलने लगे हैं कल-परसों से

मैं खुद से हार जाती हूं
मगह अहसास जीत का होता है
उन्मुक्त हो मेरा मन जब
रंगीन सपने संजोता है

डर लगता है इन सपनों से
मगर दिल कब ये सुनता है
हजारों ख्वाहिशों का ये तो
ताना-बाना बुनता है...

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